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नैनीताल – अतीत की तलाश के बहाने

Nirmaltara's Blog
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नैनीताल –
अतीत की तलाश के बहाने

ताल, माल, किरकिट (फ्लैट्स), हरे-भरे वन और शीतल बयार। इन पंचतत्वों से निर्मित, मध्य हिमालय की इस रमणीय प्राकृतिक संरचना का नाम नैनीताल है। देश-विदेश के पर्यटकों की चहल-पहल से वर्ष भर किसी मेले की सी गहमागहमी से परिपूर्ण यह शहर क्या 1840 में अंग्रेज पर्यटक पी0बैरन को सम्मोहित करने से पहले केवल घना जंगल था, या उसके अतीत में भी कोई हलचल थी? यह प्रश्न बार-बार मन को कुरेदता है। ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः‘ की भावना से अभिभूत हमारे पुरखों ने इतने रमणीय स्थल को बिना देवत्व की कल्पना से मंडित किये, छोड़ा हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता।
भूमि को देवत्व प्रदान करने का जिम्मा लिया पुराणों ने। नदियों, उनके संगमों, सरोवरों, शुभ्र पर्वतों, सभी में उन्होंने न केवल देवत्व की कल्पना की अपितु उनके दरस-परस पर पूरा माहात्म्य लिख डाला। फिर नैनीताल कैसे छूटता। लगा अतीत के ग्रन्थों को टटोला जाय।
जब सब पुराण, भारत के प्रसिद्ध स्थलों का माहात्म्य वर्णन करते-करते थक गये, तो आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व उन्होंने यह कार्य उस समय जवानी में कदम रख रहे स्कन्दपुराण को सौंप दिया। इसीलिए जब भी आप कोई धार्मिक कथा सुनते हैं तो आपको अन्त में यही सुनने को मिलता है – स्कन्दपुराणे अमुक खण्डे, अमुक अध्याये……..आदि। स्कन्दपुराण ने इस मामले में इतनी छूट दी कि अगले हजार साल तक हर एक क्षेत्र के पंडितों ने अपने-अपने रमणीय और लोक-आस्थाओं से संबद्ध स्थलों का लंबा चैड़ा माहात्म्य लिख डाला और अपने दस्तावेजों को स्कन्द पुराण से संबद्ध कर लिया।
हमारे पुरखे भला पीछे क्यों रहते। देर से ही सही, उन्होंने भी अपने आप को इस व्यवस्था से जोड़ लिया। उनके प्रमुख स्थल, देवतात्मा हिमालय, गंगा यमुना प्रमुख तीर्थ आदि तो महाकाव्यों और पुराणों के केन्द्रीय मानचित्र में थे ही। संख्या अधिक होने के कारण, कुछ कम पहुँच वाले बहुत से स्थल छूट गये थे। बस क्या था गढ़वाल के पंडितों ने ‘केदार‘ के नेतृत्व में केदारखंड लिखा तो कुमाऊँ के पंडितों ने मानसरोवर को आगे कर मानसखंड। जिसके घर के पास जो स्थान महत्वपूर्ण लगा, उसे ही किसी देवता की निवास भूमि, किसी ऋषि की तपोभूमि ही नहीं घोषित किया अपितु उसके दर्शन को पापमोचक और मोक्षदायक भी घोषित कर दिया। फिर कोई इतिहास तो लिख नहीं रहे थे। मान्यता के लिए उदार स्कन्दपुराण था ही। चंपावत के पंडितों ने अपने इलाके पर बढ़.चढ़ कर लिखा तो द्वाराहाट के पंडितों ने अपने इलाके पर। बाडे़छीना वाले पंडित को ताव आया तो उसने अपने इलाके के गधेरों को ही महिमा मंडित कर दिया। बस स्थानीय नामों के संस्कृत मेकअप की ही कसर थी। वह उसके लिए कठिन था नहीं। तिलाड़ी के पास के गधेरे को ‘तिलवती‘ बनाया तो पल्यूँ की रौली को ‘पेलवती‘, बटगल के गधेरे को बटवती, दिगोली के गधेरे को दिगवती चिराला से निकलने वाली रौली को चिरवती और चितई के गधेरे को चित्रवती। हर एक को कुछ न कुछ फल देने का अधिकार दे दिया। (आप मुझे भी कहीं पुराणकारों की तरह का ही गप्पी न समझ लें इसलिए दस्तावेज हाजिर है। मानसखंड का अध्याय पचपन। बडे परिश्रम से इसे पुनर्जीवित करते हुए गोपालदत्त पांडे जी ने, यह सोच कर कि कहीं आपको तकलीफ न हो, पेज नंबर भी दे दिया है, पृष्ठ 236) आजकल की राजनीति की तरह, बस यही लगाइये जिनको मंत्री नहीं बना पाये उन्हें निगमों का अध्यक्ष बना दिया। यदि वह भी नहीं कर पाये तो किसी सहकारी समिति का प्रशासक ही बना दिया। गड़बड़ तो तब हुई जब अलग-अलग क्षेत्र के पंडितों ने अपना-अपना जुगाड़ भिड़ाया। परिणाम यह हुआ कि माहात्म्य तो थोड़ा बहुत सब को मिल गया, पर इस बन्दर बाँट में बेचारे भौगोलिक क्रम को पूछने वाला कोई नहीं रहा। खैर छोड़िये हमें इस से क्या । हमारे लिए नैनीताल है, तो सब कुछ है। जब तिलवती, दिगवती जैसे सामान्य स्थलों को पंडित जी पुरस्कार दे रहे थे तो नैनीताल जैसे रमणीय क्षेत्र को छोड़ कैसे देते। उसका पोर्टफोलियो तो कुछ बड़ा ही होना चाहिए। पंडित जी ने लिखना शुरू किया:
गर्गाचल के वाम भाग में बहुत बड़ा ताल है। उसे तीन ऋषियों ने भरा है इसीलिए यह त्रिषि सरोवर के नाम से प्रसिद्ध है। फिर सोचा तीन ऋषियों में किसका नामांकन करूँ। छोटे-मोटे ऋषियों को इतने सुन्दर और विशाल सरोवर से जोड़ना तो अच्छा लगेगा नहीं। इसलिए अत्रि, पुलह और पुलस्त्य को संबद्ध किया। तीनों भारी ऐप्रोच वाले। अत्रि महोदय की पत्नी अनुसूया का इतना रुआब था कि एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनसे छेड़खानी क्या कर बैठे, तीनों को छठी का दूध याद आ गया और बिना अनुसूया को माँ कहे छुटकारा नही मिला। पुलस्त्य जी का पोता अन्तरराष्ट्रीय माफिया सरगना था। शायद पुलह जी को इन दोनों से दोस्ती का लाभ मिल गया या उनका भी कोई अपना सोर्स था, मुझे पता नहीं है।
फिर लिखा ये तीनों ऋषि कठोर तप करने गर्गाचल पर्वत पर आये। मार्ग में चित्रशिला को देख, वहाँ से उन्होंने चढ़ाई आरंभ की। पहाड़ पर चढ़ते हुए धूप की तेजी से उन्हें प्यास लग गयी। उन्होंने मानवरोवर का स्मरण कर पहाड़ खोदना आरंभ किया। (ताल तो पहले से ही होगा, उन्होंने केवल खोदने की पोज में फोटो खिंचवाया होगा)। स्मरण करते ही मानसरोवर ने उस स्थान को जल से भर दिया। उस सरोवर को जल से भरा देख उन सब ऋषियों ने जल पिया। बहुत दिनों तक उस स्थान पर रहने (गर्मियों का सीजन रहा होगा) के उपरान्त वे ऋषि अपने निश्चित स्थान को चले गये और घोषणा कर गये कि जो लोग इस तृषि सरोवर में स्नान करेंगे, वे निःसंदेह मानसरोवर में स्नान करने का फल प्राप्त करेंगे। इति स्कन्दपुराणे मानसखंडे गर्गाद्रिमाहात्म्यं नाम एकचत्वारिंशोऽध्यायः।
मानसखंड आज का तो है नहीं। कम से कम पाँच.छः सौ साल पुराना तो होगा ही। जिन जगहों का उसमें उल्लेख है, उनमें हजार पाँच सौ साल पुराने पुरातात्विक अवशेष मिलते ही हैं। इसलिए जब मानसरोवर के बराबर पुण्य स्वीकृत करने का अधिकार दे रखा है तो उसका कोई न कोई दफ्तर, अथवा साइनबोर्ड, मतलब, कोई स्थापत्य अथवा मूर्तिशिल्प के नमूने तो यहाँ होने ही चाहिए। इतना ही नहीं। खास-खास जगहों को जो पर्व और उत्सव एलाट किये गये हैं उसी तरह का तरह कोई न कोई पर्व तो इसे एलाट होना ही चाहिए। यह सोच कर बैरन साहब से पहले के जमाने को तलाशने बैठ गया।
बैरन साहब खुद देख गये थे कि स्थानीय लोगों के लिए नैनीताल बड़ा ही पवित्र स्थान था। यहाँ के निवासी नहीं चाहते थे कि यूरोप के लोग, जो उनकी नजरों में म्लेच्छ थे, नैनीताल की पवित्रता को दूषित करें। इसीलिए बार-बार पूछने पर भी स्थानीय लोग नैनीताल के बारे में अपनी अनभिज्ञता जाहिर करते थे। लेकिन बैरन साहब को मालूम था कि आसपास के क्या यहाँ से सात-आठ दिन की पैदल यात्रा की दूरी पर रहने वाले लोग भी नैनीताल के बारे में भली भाँति परिचित थे। हर साल यहाँ एक मेला लगा करता था। आज कल जहाँ मल्लीताल बाजार है वहाँ पर एक विशाल झूला था जिसमें लोहे की मोटी-मोटी जंजीरे लटकी हुई थीं। लोगों ने बैरन साहब को यह भी बताना मुनासिब नहीं समझा कि मेला क्यों लगता है। विश्वास न हो तो उनकी पुस्तक वांडरिंग्स इन हिमाला का बाईसवाँ और तेईसवाँ पृष्ठ खोल लीजिये। सब मालूम पड़ जायेगा।
भले ही बैरन साहब यह कहते रहे कि कुमाऊँ के पहले अंग्रेज कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल नैनीताल हो आये थे पर पता नहीं क्यों वे इसे अपने बिरादरों को बताने से संकोच करते रहे। इस पर भी आप कब मानने वाले हैं। आप तो कहेंगे कि बैरन साहब से पहले नैनीताल का पता था ही नहीं । इसकी खोज तो उन्होंने ही की। यदि मैं यह कहूँ कि नैनीताल के वर्तमान सन्निवेशीकरण का श्री गणेश बैरन साहब ने किया न कि खोज। इसे खोज कहना बेमानी होगा। तब भी आप को अजीब सा लगेगा। कहेगे, जब विश्वविद्यालयों के महापंडित बैरन साहब को इसका अन्वेषक मानते हैं तो हम आपकी बात क्यों मान ले। आपके पास इस बात का क्या सबूत है कि, नैनीताल में इससे पहले भी कुछ था।
सबूत तो इस बात का भी नहीं था कि जाब चार्नाक के द्वारा बसाये जाने से पहले भी कलकत्ता भी कुछ था। अब खुदाई से पता लग रहा है कि जाब चार्नाक से दो हजार साल पहले भी कलकत्ता, भले ही इतना बड़ा न हो, एक नागर सन्निवेश था। मैं भी सबूत खोद निकालता, पर क्या करूँ भूस्खलनों की इस तांडवस्थली में अतीत का उद्घाटन करने के लिए पुराने अवशेषों को टटोल पाना भी मुश्किल है। 1880 के भयावह भूस्खलन से पहले भी यहाँ अनेक भूस्खलन हुए हैं। मल्लीताल को गौर से देखें तो आपको पता लग जायेगा कि इसका निर्माण चीनपहाड़ में हुए भूस्खलनों से हुआ है। तल्लीताल बस स्टैंड शेर के डाँडा में हुए भूस्खलन से बना है। इतिहास गवाह है कि इन भूस्खलनों के कारण बेचारी नन्दा देवी को कई बार अपना डेरा बदलना पड़ा। पहले बस स्टेशन के पास रहती थीं। भू-स्खलन हुआ। वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास रहने लगी। 1880 के भू-स्खलन ने उन्हें उस स्थान से वर्तमान स्थान पर धकेल दिया। यह तो अंग्रजों को सदबुद्धि आयी कि उन्होनें जगह-जगह पक्के नाले और नालियाँ बना कर पहाड़ का लुढ़कना कम कर दिया। वरना……। आपने उन्हें देश से क्या भगाया, उनके हर भले काम को नकारने पर तुले हुए हैं। नालियाँ आपने मलुवे से भर दी हैं। भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों में ले दनादन मकान ठोकते जा रहे हैं। पेड़ों से आपकी नाराजगी जग जाहिर है। जहाँ केवल लंगूर और बन्दर ही थिरकते थे, वहाँ आपकी कारें और ट्रक धिरक रहे हैं। कल को कुछ होगा तो आपके वंशज फिर कहने लगेंगे कि सन् 2240 में किसी ‘बैरन‘ के आने से पहले नैनीताल में कुछ था ही नहीं।
इसलिए प्रायः दरक जाने वाले रिसते हुए रेतीले पहाडों के मलवे के भीतर दबे अवशेषों को खोज निकालना लगभग असंभव है। अन्य स्रोतों से नैनीताल के अतीत को तलाशने का प्रयास, देखें कहाँ तक सफल होता है। कम से कम बहस तो शुरू की ही जा सकती है।

मानसखंड के पंडित जी के जमाने में इस सरोवर का नाम नैनीताल तो रहा नहीं होगा। नहीं तो नंदा भगवती, जो कार्तिकेयपुर नरेशों की कुलदेवी थी, उसके नाम पर उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। सीधे लिखते नन्दा सरोवर। इन तीन महा ऋषियों को फिट करना ही होता, तो उन्हें उसकी उसकी आराधना में बैठा देते । नन्दा का भी रुआब बढ़ता। इसलिए लगता है कि इस जगह का नाम ‘त्रिषि‘ तो नहीं, इससे मिलता-जुलता ही कुछ रहा होगा। पंडित जी को मौका मिला तो उन्होने उस नाम का पौराणिक मेकअप कर दिया।
मेरे फितूरी दिमाग का भी क्या कहना। वह मुझे कुहनी से ठसका कर कह रहा है कि कहीं यह नाम तिष्य तो नहीं। आप पूछेंगे, यह तिष्य कहाँ से आ टपका। आपकी जिज्ञासा सही है। यह तिष्य मेरे खुराफाती दिमाग की उपज नहीं है। दर असल बात दूसरी है।
हुआ यह कि 1958 में राजकीय महाविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास के प्राध्यापक अवध बिहारी लाल अवस्थी और उनके दो चेलों, जगदीश चन्द्र लोहनी और ताराचन्द्र त्रिपाठी को क्या सूझी कि वे नैना देवी मंदिर परिसर में स्थित भैरव मंदिर में रखी पाषाण प्रतिमाओं की सफाई में जुट गये। बेचारे भैरवनाथ। प्राइवेसी का नाम नहीं। किसी को रोक.टोक नहीं। एक बीस इंच लंबी 9 इंच चौड़ी और 5 इंच मोटी शिला भी वहाँ घुस गयी। इस औढर दानी के दरबार में जो भी गया पूजा में शेयर करने लगा। यह शिला भी। भैरव जी तो जैसे थे वैसे ही रह गये। पर यह शिला सिन्दूर पी पीकर चार इंच और मोटी हो गयी थी।
बचपन में हम लोग एक तुकबंदी गाते थे जिसकी कुछ पंक्तियाँ होती थीं…. ए.बी.सी.डी.ई.एफ.जी,वहाँ से निकले पंडितजी, पंडितजी ने खोदा गड्ढा, वहाँ से निकला गांधी बुड्ढा, गांधी बुड्ढे ने लगायी तान, वहाँ से निकला हिन्दुस्तान…। बस इसी तर्ज पर, इतिहास के इन त्रिषितों के हाथों शिला से सिन्दूर की तह क्या हटी, कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित चैबीस जैन तीर्थकरों ओैर एक नारी मूर्ति से युक्त लाल बलुवे पत्थर की गुप्तकालीन जैन प्रतिमा फलक निकल आया। बगल में इस प्रतिमा को गढ़ने वाले ने बनवाने वाले का विवरण भी दे दिया था और तारीख भी। लिखा था तिष्य के पोते ने गुप्त संवत् 179 (ई0 सन् 498) में जैन आचार्य इन्द्रनन्दि के शिष्य अर्हत अरिपार्श्व के लिए इस प्रतिमा फलक का निर्माण करवाया था। आप फिर भी संदेह करेंगे। भाई साहब! लेख के पाठ का सत्यापन भारत सरकार के पुरा लिपि विशारद डा0 दिनेशचन्द्र सरकार से करवाया जा चुका है। इस लिए संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। लेख का लाइन वार का मजमून इस प्रकार है.
ओ3म् आचार्यइन्द्र/ नन्दिशिष्याया/र्हतअरिपाश्र्वा/य तिष्य पौत्रेण
( ओ3म् आचार्य इन्द्रनन्दि के शिष्य अर्हत अरिपाश्र्व के लिए तिष्य के पोते द्वारा)
इस लेख के कुछ ऊपर तीन अक्षर और हैं जिन्हें 1, 70 और 9 पढ़ा गया है इस प्रकार यह लेख 179 गुप्त संवत या 498 ई0 का हुआ।
(सुना जाता है कि जैसे ही इस प्रतिमा फलक की चर्चा अखबारों के माध्यम से जगजाहिर हुई, अत्रि, पुलह, और पुलस्त्य में से किसी एक के वंशज ने, जो उन दिनों यहाँ बड़े ओहदे पर थे, उसे सम्मान सहित अपने ड्राइंगरूम में जगह दे दी और जब उनका यहाँ से महाभिनिष्क्रमण हुआ तो जैन तीर्थकर भी उन्हीं के साथ चल दिये।)े
कहीं इस तिष्य के नाम पर ही इस सरोवर का नाम तिष्य सरोवर तो नहीं पड़ा। पंडित जी को तिष्य तो समझ में आना था नहीं। फिर उन्हें तो केवल नाम मिला होगा। पुराने शिलालेखों की लिपि को तो हमारे पूर्वज सैकड़ों साल पहले भूल गये थे। किसी जिज्ञासु ने कोशिश भी की होगी तो पंडित जी ने ऊलजुलूल कुछ पढ़ कर उसे बहला दिया होगा। विश्वास न हो तो भारतीय पुरालिपि को प्रकाश में लाने वाले जेम्स प्रिंसेप जी से पूछ लीजिये। पूरे तीस साल तक चक्कर काटते रह गये। पंडित जी का आफीसियल सीक्रेट एक्ट जो ठहरा।
लाल बलुवा पत्थर तो पहाड़ का तो हो नहीं सकता। अतः यह प्रतिमा निश्चय ही बाहर से आयी होगी। कौन लाया होगा? कब लायी गयी होगी? कुछ पता नहीं। मदनचन्द्र भट्ट जी कह रहे थे कि लाल बलुवे पत्थर की ऐसी ही एक विष्णु प्रतिमा पिथौरागढ़़ के समीप मरसोली के मन्दिर में भी है। मैं भी देख आया हूँ। और जगहों पर भी हो सकती हैं। इसलिए इसे गप कैसे मान लूँ। पर इतना तो पक्का है कि हमारे यहाँ लाल बलुवे पत्थर की यह प्रतिमाएँ मानसखंड की रचना (14वीं-15वीं शताब्दी) से बहुत पहले लायी जा चुकी होंगी।
फिर आप पूछ बैठेंगे। तिष्य तो जो भी हो , यह इन्द्रनन्दि क्या बला है। इन्द्र देवताओं का राजा और नन्दि शिव जी का बैल। दोनों का क्या जोड़। भाई मेरे! इस जैन पूजा-फलक के आचार्य इन्द्रनन्दि ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। मथुरा के जैन आचार्यों में इन्द्रनन्दि नाम के तीन आचार्य हुए हैं। शिलालेख की तिथि और लिपि के आधार पर इस लेख के आचार्य इन्द्रनन्दि का काल 500 ई0 के आसपास है। इस प्रकार जैन साक्ष्यों के अनुसार यह मथुरा के दूसरे इन्द्रनन्दि नाम के आचार्य हैं।
यह तो ठीक है। पर, जैन साक्ष्यों में हिमालय के पर्वतीय भू-भाग का कहीं कोई उल्लेख मिलता है? उल्लेख तो अवश्य होगा। हिमालय भी क्या कोई भूलने की चीज है। फिर इन घुमक्कड़ सन्तों के लिए! बुद्ध भगवान जब वर्षाकाल में तीन महीने तक काशीपुर रह सकते हैं तो उनसे सीनियर दिगम्बर महावीर जी पीछे थोड़े रहे होंगे। वे भी हिमालय में कहीं पर आये ही होंगे। खोजना पडे़गा। यही मुश्किल है। डी0एस बी0 का पुस्तकालय तो जल गया। दुर्गासाह नगरपालिका पुस्तकालय में एक पुस्तक जैन धर्म पर मिली। पता चला कि परवर्ती जैन साहित्य में ऋष्यन्द, (पाठान्तर हिमवन्त) नामक गिरि शिखर का उल्लेख हुआ है। उल्लेख निम्नवत् है.
पासस्स समवरणे सहिया वरदत्त मुनिवरा पंच।
ऋष्यन्दे गिरि सिहरे णिव्वाण गया णमि तोमि।
अर्थात् पार्श्व के निर्देशन में वरदत्त आदि पाँच जैन मुनि निर्वाण प्राप्ति के लिए ऋष्यन्द (पाठान्तर हिमवन्त) नामक गिरि शिखर पर गये।
यह ऋष्यन्द पर्वत कहाँ है? यह कहीं विन्ध्य पर्वत माला के दक्षिण में स्थित ऋष्यमूक पर्वत है या हिमवत् प्रदेश का ऋष्य या तृषि या त्रिऋषि सरोवर क्षेत्र, कहना कठिन है।
तिष्य और त्रिषि की तो वर्षों पहले छुट्टी हो गयी। नया नाम नैनताल जिसे हिन्दी की ‘ई‘ ने इसे बना दिया नैनीताल।
फिर पौराणिकों के चक्कर लगाये। पूछा अब बताओ। तिष्य का तो आपने त्रिषि कर दिया। कथा भी जोड़ दी। नैनताल का क्या समाचार है! पौराणिक बोले, नैनीताल भारत के 108 शक्ति पीठों में एक पीठ है। इसका नामकरण सती के नयन के आधार पर हुआ है। पिता दक्ष प्रजापति द्वारा अपने पति शिव के अपमान को सहन न कर पाने के कारण सती ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ कुंड में अपनी आहुति दे दी थी। सती के निधन के उपरांत शिव सती का शव लेकर पूरे भारत वर्ष में भटकते फिरे थे। सती का जो अंग जहाँ पर गिरा उसके आधार पर वहाँ पर एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई। इस स्थान पर चूँकि सती का नयन गिरा था, इसलिए इस स्थान का नाम नयन ताल पड़ा। जनता की बोली में यह आज भी नैनताल है न कि नैनीताल। नैनीताल तो हिन्दी का संक्रमण हो जाने से हुआ है।
पंडित जी की कथा तो सुन ली। लगा, सती का नेत्र गिरा हो या नहीं। पर कुछ न कुछ तो हुआ ही होगा। इतिहास को टटोला। पता लगा, नयना, नैना या नना संभवतः वह मातृ देवी है, जिसका उल्लेख कुषाणों के अभिलेखों में ननाशाओ के रूप में हुआ है। (वैसे वेदों में भी माता के लिए नना और पिता के लिए तता शब्द मिलते हैं।) जो भी हो नैनादेवी का इतिहास कत्यूरी युग से भी पुराना है।
जैसे मायावती जी फटाफट स्थानों के नाम बदल अपने पुरखों के नाम पर रख रही हैं, ऐसा लगता है कि उसी प्रकार तिष्य या त्रिषि के स्थान पर नन्दा भगवती के नाम पर इस सरोवर का नामकरण कत्यूरी नरेशों के युग में हुआ होगा क्योंकि नन्दा कत्यूरी राजवंश की कुलदेवी थी। इसका उल्लेख उनके दानपत्रों में नन्दाभगवती चरणकमलकमलासनाथ मूत्र्तिः (ललितशूरदेव एवं भूदेव) अथवा नन्दादेवीचरणकमल लक्ष्मीतः (पद्मटदेव एवं सुभिक्षराजदेव) के रूप में हुआ है। परवर्ती कत्यूरी काल के घटनाक्रम से जुड़े रानीबाग, कठौतिया और ढिकुली के निकट स्थित इस एकान्त पर्वतीय वन कुंज में नन्दा देवी की स्थापना निश्चित रूप से कत्यूरी युग या उससे पूर्व हो चुकी होगी। नैनीताल में नन्दादेवी मदिर-समूह का मौलिक रूप, जो कत्यूरी युग के कुशल कलाकारों द्वारा निर्मित हुआ होगा, अब भूमि के नीचे किसी अज्ञात स्थान पर सोया हुआ है।
इस प्रकार अंग्रेजों के आगमन से पूर्व नैनीताल केवल रामगढ़, छखाता और धनियाँकोट पट्टियों का खरक मात्र नहीं था अपितु यहाँ पर दैड़ा बिनसर, पाताल भुवनेश्वर, जागेश्वर आदि की तरह ही देवायतन, देव-विग्रह, उपासकों के आवास आदि, निर्मित हुए होंगे। लगातार होते रहे भूस्खलनों और नये निर्माणों के कारण इस सामग्री का पता लगाना कठिन है।
जहाँ अवशेष न मिले, वहाँ स्थानों के नाम बहुधा स्थानों की पोल खोल देते हैं। पर अंग्रेजों के आने के बाद नैनीताल के अधिकतर स्थलों के नाम भी, आकाओं को अपने घर की याद आ जाने के कारण, इंग्लैड के नामों तले दब गये हैं। फलतः इस क्षेत्र के अतीत को खोज निकालने का वैकल्पिक स्रोत भी समाप्त हो गया है। अयारपाटा, देवपाटा, लढ़ियाकाँटा, चीनपहाड़, शेर का डाँडा जैसे कुछ नाम ही शेष रह गये हैं। आइये इन्हीं नामों से कुछ छेड़खानी करें।
अयारपाटा, देवपाटा आदि में प्रयुक्त ‘पाटा‘ या संस्कृत पाटक भूखंड विशेष का परिचायक है। सुभिक्षराजदेव के पांडुकेश्वर दानपत्र में जातिपाटक, न्यायपट्टक आदि स्थान-नामों के साथ पाटक परपद का प्रयोग हुआ है। संभवतः इसी पाटक शब्द से आगे चलकर पट्टा (भू संबंधी अभिलेख) बना होगा। शायद मोटापा बढ़ने से यही पट्टा, पट्ठा (गत्ता) बन गया।
अयारपाटा इस क्षेत्र में अयार नामक वृक्षों की बहुतायत की देन है। देवपाटा स्थान विशेष से जुड़ी देव धारणा की ओर संकेत करता है। इसी प्रकार चीन पहाड़ नाम इस पहाड़ के शिखर से हुण देश तक दृष्टि जाने के कारण पड़ा है।
आप कहेंगे कहाँ चीन और कहाँ हुणदेश। यह तो हो ही नहीं सकता। कुछ और प्रमाण दे सकते हैं? हुणियों के लिए चिण या चीन शब्द का भी प्रयोग अन्यत्र भी हुआ है। अल्मोड़ा के समीप ताकुला में प्राचीन श्मशानभूमि का नाम ही चिणगैर है। वराहमिहिर ने भी ब्रह्मपुर, दावर्डामर, तंगण, कुलूत आदि देशों के साथ चीन को भी एक ही दिशा में माना है पर यह चीन शब्द चीन से संबंधित न होकर इसी हुणदेश का ही द्योतक जान पड़ता हैं। रवीन्द्रनाथ टैगौर का भारतीय संस्कृति की विराटता के संदर्भ में निम्न कथन में ‘चीन‘ देश की अपेक्षा प्रजातिवाची संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है।
‘हेथाय आर्य हेथाय अनार्य हेथाय द्रविड़ चीन।
शक हूण दल पाठान मूगल एक देहे हलो लीन।‘
रही बात लढ़ियाकाँठा की। इसमें काँठा भू-संरचना की दृष्टि से सीधे खड़े पहाड़ी ढाल ( कु0 भ्योल) का परिचायक जान पड़ता है। पर इसका समानार्थक संस्कृत शब्द स्कन्ध है जो मनुष्य में कन्धा और पर्वतों के संदर्भ में कंठा या काँठा बन गय हैं। आइये अब इसे भूसंरचना के संदर्भ में भी देख लें। इस अंचल में अधिकतर भूस्खलन जन्य तीव्र पर्वतीय ढलानों को भ्योल कहा जाता है। इनमें से कुछ व्यक्ति नामों पर आधारित हैं जैसे रातीघाट से तल्ला रामगढ़ पैदल मार्ग पर त्याड़ी भ्योल। कुछ किसी बूढ़े या एक और नया भ्योल बन जाने के कारण बुड़ भ्योल (बुड़ या पुराना) नाम से अभिहित होने लगे हैं। ( बजून से कोटाबाग जाने के मार्ग पर ऐसे ही भ्योल का नाम बुड़ भ्योल है।) कांठा शब्द भी भ्योल का समानार्थक है । अन्तर इतना है कि जहाँ भ्योल भूस्खलन जन्य पहाड़ी ढाल का बोध कराता है वहाँ कांठा लंबवत पहाड़ी ढाल का। इसी प्रकार एक समानार्थक शब्द कटिया भी है। हिमालय के एक पर्वतीय शृंग का नाम बनकटिया इसी प्रकार की भू-संरचना का द्योतक है। काँठा का एक रूप कहीं कही पर कैंट भी है। कहीं इसे आप सेना की छावनी न समझ लें! यह कुमाऊनी कैंट है, अंग्रेजी का सी.ए.एन.टी. नहीं।
यहाँ काँठा तो ठीक है पर यह लढ़िया तो एक और बला है। आइये अब इसकी शल्य क्रिया करें। यह संस्कृत ‘लब्धि‘ (लब्धि झ लद्धि झ लढ़ि) से तो संबंधित हो नहीं सकता और न कुमाऊँनी लढ़ि ( प्यार करने वाला) से तो इसका कोई तादात्म्य हो सकता है। अलबत्ता यहाँ विचरण करने वाले घुरड़, काँकड़ तथा अन्य वन्य पशुओं को देखते हुए लुब्धक ( शिकारी) से संबंधित हो सकता है।
एक और संभावना, जिसका इस अंचल और भाषा से कोई सीधा संबंध नहीं है, साहित्यिक मस्ती के लिए सोची जा सकती है। ब्रज प्रदेश में लढ़ा और लढ़िया शब्द गाड़ी (बैलगाड़ी) वाचक है। नरोत्तम दास जी के सुदामा जी ने अपनी पत्नी द्वारा बार.बार द्वारिका जाहु जु द्वारिका जाहु जी की रट लगाने पर खीज कर ताना दिया था. ‘‘जाते हिं देहिं लदाय लढ़ा भरि‘‘ । खैर बडे़ शौक से लढ़िया काँटा जाइये वहाँ जाकर यही अनूभूति होगी। बस केवल एक और गिरि शृंग। बाकी कुछ नहीं। अब तो इसके अकेलेपन को दूर करने के लिए वायु सेना ने अपना राडार स्टेशन खोल दिया है ताकि यह दूर.दूर की बातों पर कान लगाये रख कर अपना मन बहलाता रहे। वैसे भी संसार में इससे अधिक आनन्ददायक शगल और है भी नहीं।
शेर का डाँडा यदि पशुवाची है तो गेठिया(गेठी), बबुलिया (बबूल), कैलाखान (कैल गौंजी या कौंच) आदि वनस्पति वाची हैं। खान शब्द पशु की पीठ की तरह की उस पहाड़ी शिखर का द्योतक है जहाँ से दोनों ओर के भूभाग दिखायी देते हैं। निकटस्थ महेशखान और अल्मोड़ा जनपद के कफड़खान की भी यही स्थिति है। अन्यत्र खान के पर्याय गढ़वाल में खाल, अल्मोड़ा जनपद में छीना कहीं कहीं विनायक भी हंै।
शब्दों के इस खेल से मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि यदि नैनीताल के प्राचीन स्थान.नाम सुरक्षित होते तो इसके पुरावशेषों की खोज की जा सकती थी। चलिये! समझौता कर लेते हैं। जो कुछ बचा है, उस से आप यह तो मानेंगे कि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व नैनीताल जन मानस के लिए अपरिचित नहीं था। दैड़ा बिनसर की तरह ही घने वनों के बीच यहाँ कुछ देवायतन थे। वर्ष में एक बार यहाँ मेला लेता था। ग्रीष्म ऋतु में आसपास की पट्टियों के ग्रामीण अपने पशुओं को लेकर इस क्षेत्र मंे आ जाते थे और गर्मियों के महीने यहाँ बिताकर अपने घरों को लौट जाते थे। वन्य पशुओं की अधिकता के कारण लुब्धक या शिकारी भी यहाँ आते रहते थे।

फिर जैन प्रतिमा की उपलब्धि और मानसखंड के आख्यान से यह स्पष्ट है कि अतीत में नैनीताल के प्रति स्थानीय जनता में धार्मिक आस्था विद्यमान थी। आसपास के ग्रामीण इस पर्व पर यहाँ सम्मिलित होते रहे हैं। क्या करें भूस्खलनों से ग्रस्त नैनीताल के पुरावशेष मल्लीताल बाजार के नीचे दबे हैं या तल्लीताल में सैनिक शिविर के पास कहा नहीं जा सकता। फ्लैट्स में खेल भवन के निर्माण के समय लगभग 22 फीट की गहराई में कुछ भवनों के अवशेष मिले थे, यह तो आपको भी मालूम होगा। अब बताइये पन्दा के रेस्टोरेंट में चाय पियें या अतीत के उन भूस्खलनों को कोसें जिन्होंने नैनीताल के अतीत को ही मिट्टी के तले, बहुत गहरे दबा दिया है।

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